विमलेश रोज बन रही दुनिया के आदिवासी कवि हैं
हम बचे रहेंगे पर एक पाठकीय प्रतिक्रिया
जयप्रकाश
“… the poetic work, in its resistant self-sufficient presence , is not reducible to wht a reader already understnads. It brings into existence something new that need to be undestood only in its own terms: the truth that discloses itsself in the work can never be proved or derived from what went before. Wht went before is refuted in its exclusive reality by work..”
- MARTIN HEIDEGGER
( Poetry, Language & Thought)
( Poetry, Language & Thought)
जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने कहा था कि अकादमिक आलोचना कविता का विध्वंस है। कविता का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। विमलेश त्रिपाठी की कविताएं इसी कोटि में आती हैं। उन्हें आधुनिक आलोचना के औजारों द्वारा समझने की कोशिश उनके विनाश में होती है। अतः विमलेश की कविताओं पर यह चिंतन बस चिंतन की आवश्यकता से उपजा है, उनकी कविताओं को पहले से तय मुहावरों एवं विमर्शों से रिड्यूस करने के लिए नहीं।
विमलेश एक दुनिया रचते हैं अपनी कविताओं में। बल्कि कहना चाहिए कि उन्होंने कविता-दुनिया रची है। कविता से बाहर दुनिया नहीं है, दुनिया से बाहर कविता नहीं है। कविता ही ‘पृथ्वी’ है, दुनिया है। हाइडेगर की दार्शनिकता का केन्द्रिय शब्द है ‘पृथ्वी’। विमलेश भी पृथ्वी का जिक्र बार-बार करते हैं। प्रार्थना कविता में में पृथ्वी के साबुत बचे रहने की संभावना है तो कठिन समय में प्रेम कविता में पृथ्वी सहेली है। स्त्री एवं पृथ्वी का यह ऐक्य उनकी कविताओं में बार-बार आता है जिसकी वजह से उन्हें इकोफेमिनिस्ट लेखक कहने का मन करता है, लेकिन यह अपर्याप्त है क्योंकि जैसा कि कहा जा चुका है कविता को पहले से तय विचार सरणियों में रिड्युस नहीं किया जा सकता है। विमलेश अपनी ‘पृथ्वी’ रचते हैं यह उनका लोक है जो सामुदायिक जीवन ( Community living) की सहज आत्मिय उष्मा से बना है, जहां टूंआ, सूकर जादो, बकुली बाबा, मां, प्रेमिका, पत्नी, कोइरी डोमीन, अनगराहित सिंह (जो मंत्रों की तरह पहाड़ा बुदबुदाते हैं) का भरा-पूरा संसार है।
यह दुनिया रोज बनती है, इसलिए रोज बिगड़ती भी है। यह अधूरे अंत का प्रारंभ है। बाबूजी नहीं समझते, मगर समय ‘ बदल जाता है’, क्योंकि दुनिया बदल जाती है। मगर इस तरह बदलती हुई दुनिया बची रहती है। ‘हम बचे रहेंगे’ का विश्वास इस तरह पुराने पर्यावरणवादी मुहावरे की परिणति नहीं है। यह बचे रहना बिल्कुल अलग है। यह यूटोपिया या बुर्जुवा जिजिविषा का महिमागान नहीं है। यह सामुदायिक जीवन के दुख से उत्पन्न दृष्टि है।
यह दुख ...
फरेब से बचाएगा
होंठो पर हंसी आने तक।
इस तरह विमलेश आस-पास रोज बन रही दुनिया के आदिवासी कवि हैं। गहन आत्मियता एवं दर्द भरे करूणा से भरे हुए, फैज की याद आती है। विमलेश फैज की तरह एक साथ गहन रोमांटिकता और धुर यथार्थवादी, क्रान्तिधर्मिता के कवि हैं। उनकी संवेदना इधर के कवियों से अलग, अछूती, शगुफ्ता एवं मौलिक है।
स्त्री के प्रति उनकी दृष्टि उन्हें विशिष्ट बनाती है। मां शीर्षक कविता में ममता के चुकने के बाद ‘मां’ में औरत का प्रकट होना कैट मिलेट के सेक्सुअल पॉलिटिक्स के दर्शन को चार पंक्तियों में उजागर कर देता है। विमलेश की भाषा बेहद सर्जनशील है। आदिम शब्दों की सहजता उनकी ठेंठ नॉस्टेल्जिक दुनिया रचती है।
प्यार का लौटा दिया जाना भी कठिन समय में प्रेम कविता में अद्भुद अर्थगर्भिता लिए हुए है। पृथ्वीआज सबकुछ लौटा देना चाहती है, स्त्री भी। जंगल-जमीन के अबाध शोषण के बाद का यह सच उनकी रचनात्मकता को तीखे यथार्थ से जोड़ता है।
हां, जहां विमलेश आत्मविश्वास के अभाव में चालू भाषा के भीतर काम करते हैं, कुछ रच नहीं पाते। ‘कवि’होने का महिमामंडन ( कविता से लंबी उदासी) उनको खुद से दूर कर देता है। यह कविता का कविता के स्व से दुराव ( Distance from itself) है। विमलेश तब विमलेश नहीं होते( संदर्भः देरिदा), ईश्वर को भी उन्होंने जरूरत से ज्यादा महत्व दिया है। मगर जहां करीमन यादव, बकुली बाबा, ढील हेरती औरतें उनकी दुनिया में आती हैं, वे बहुत बड़े कवि होने लगते हैं। ग्रिक कवयित्री सैफो की तरह उद्दाम जीवन-वासना उनकी इन कविताओं में है।
कहां जाऊं कविता में उनका यह विश्वास कि पृथ्वी पर पर्याप्त अन्न है पुस्तक के शीर्षक को सार्थकता देता है। पृथ्वी पर उन्न है क्योंकि अन्न की तरह विमलेश जैसे कवि हैं।
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