Friday, August 3, 2012

हम बचे रहेंगे


जादुई समय की तिलिस्म तोड़ती
ईमानदार कविताएं
                                नील कमल 

समकालीन कविता में हमारे भरोसे को बनाए रखने में उन कवियों की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है जिनके पास बतौर ताक़त न तो जोड़ तोड़ की गणित है और न ही कोई विश्वसनीय आलोचक । ऐसे ही एक कवि हैं विमलेश त्रिपाठी जिनका यह कविता संग्रह अभी छप कर आया है । विमलेश की कविताओं में समय की उदासी है । उदास समय में कवि कहता है :

"मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ 
मेरे पास शब्दों की जगह 
एक किसान पिता की भूखी आँत है 
बहन की सूनी माँग है 
छोटे भाई की कम्पनी से छूट गई नौकरी है 
राख के ढेर से कुछ गरम उधेड़ती 
माँ की सूजी आँखें हैं" 


कितना त्रासद है उदास समय के सबसे कम जादुई कवि का यह आत्मस्वीकार । किसान पिता जो अन्न उपजाता है वह भूखा है । बहन है जो अनब्याही है । भाई है जो छँटनी या बन्द कारखाने की वजह से बेकार-बेरोजगार है । माँ है जिसकी आँखें सूजी हुई हैं । यह चित्र कविता में निस्सन्देह कोई कम जादुई कवि ही खींच सकता है । शब्दों का कोई बड़ा जादूगर तो क़लम की नोक से अनाज के दाने और बन्दूक की गोली एक साथ परोस देता है । लेकिन जो कम जादुई है वह अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार है । कम से कम वह मध्यवर्गीय महानगरीय चेतना को लबादे की तरह नहीं ओढ़ता है बल्कि कपड़े की तरह पहनता है और कभी कभी त्वचा की तरह महसूस भी करता है । इस सबसे कम जादुई कवि के यहाँ प्रेम भी कुछ अलग अन्दाज में आता है : 


"एक लड़की 
अपनी माँ की नज़रों से छुपा कर 
मुट्ठी में करीने से रखा हुआ बसन्त 
सौंपती है 
कक्षा के सबसे पिछले बेंच पर बैठने वाले 
एक गुमसुम और उदास लड़के को" 


एक ऐसे समय में जबकि जबकि प्रेम के नाम पर देह का विमर्श जारी है और समय के सफ़ल कवि कविताओं में प्रेमिका के स्तनों और जाँघों पर खुल कर लिख रहे हों एक लड़की का एक उदास लड़के को मुट्ठी में करीने से रखा बसन्त सौंपना निस्सन्देह कविता में सौंदर्य को बचाने की महत्वपूर्ण कोशिश है । सिर्फ़ सौन्दर्य ही नहीं प्रतिबद्धता के स्तर पर भी विमलेश की बात ध्यान खींचती है कि "अपने हिस्से की सारी जमीन" छीन लिए जाने के बाद भी वे अश्वस्ति दिलाते हैं कि "धमनियों में शेष लहू से सदी की सबसे बड़ी कविता" लिखी जानी है । 


सबसे बड़ी बात यह है कि यह कवि जादुई समय का तिलिस्म तोड़ता भी है । 
वह स्पष्ट करता है :

"एक ऐसे समय में 
शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूँ लड़ाई 
यह शर्म की बात है कि मैं लिखता हूँ कविताएँ 
यह गर्व की बात है 
कि ऐसे खतरनाक समय में 
कवि हूँ" 


शब्दों को बचाने की लड़ाई लड़ते हुए एक तरफ़ कवि शर्मशार है तो वहीं उसे खतरनाक समय में अपने कवि होने पर गर्वबोध भी है । यह अनायास नहीं है बल्कि कवि को अहसास है कि कविता ही उसका कवच और हथियार दोनों है । दुर्भाग्य है कि सच्चे , ईमानदार और भरोसेमन्द कवियों को भी समय के न्यायाधीश सुलभ आलोचक "नोटिस" नही करते ।


विमलेश त्रिपाठी कवि रूप में मुझे इसलिए भी प्रिय हैं कि उनकी कविताओं में समकालीन चालाकी या चतुराई नज़र नहीं आती । वे कविता में अधिकाधिक ईमानदारी बरतने वाले एक ऐसे कवि के रूप में आते हैं जिसके यहां शब्द ही पहली और आखिरी पूंजी है । ये शब्द भी जीवन और उसकी संवेदना में भींगे हुए होते हैं । कविता में छोटे-छोटे सुख-दु:ख , जय-पराजय और खोने-पाने की बारीक पहचान उसे एक नई चमक देती है । 


"सब कुछ के रीत जाने के बाद भी 
मां की आंखों में इंतज़ार का दर्शन बचा रहेगा 
अटका रहेगा पिता के मन में 
अपना एक घर बना लेने का विश्वास 
ढह रही पुरखों की हवेली के धरन की तरह 


तुम्हारे हमारे नाम के 
इतिहास में गायब हो जाने के बाद भी 
पृथ्वी के गोल होने का मिथक 
उसकी सहनशक्ति की तरह बचा रहेगा 


और हम बचे रहेंगे एक दूसरे के आसमान में 
आसमानी सतरंगों की तरह " 


सब कुछ का रीत जाना व्यावहारिक अर्थों में जीवन का चुक जाना भी होता है लेकिन कविता में सब कुछ के रीत जाने के बाद भी इन्तज़ार बाकी है । यह इन्तज़ार भी ऐसा कि जैसा मां की आंखों का इन्तज़ार होता है । और हद तो यह भी है कि यह इन्तज़ार चुपके से ही सही इन्तज़ार के दर्शन में बदल जाता है । कविता में कवि की आस दर असल वह अदम्य जिजीविषा है जो पिता के मन में अपना एक घर बना लेने के विश्वास की तरह ज़िन्दा है । अपने बचे रहने का यक़ीन इतना सच्चा है कि वह मां के इन्तज़ार और पिता के विश्वास जैसा दिखने लगता है । यह यक़ीन ढह रहे पुरखों की हवेली के धरन की तरह है जो पूरा का पूरा कभी भी नहीं ढहता । 


विमलेश त्रिपाठी जब कहते हैं कि हम बचे रहेंगे तो यह मनुष्यता को बचा ले जाने की व्यापक जद्दोजहद है न कि व्यक्ति को  बचाने की संकुचित महत्वाकांक्षा । यह एक इन्क्लूसिव सोच है जिसमें एक दूसरे के लिए हमेशा ही जगह बची रहती है । दूसरे ढंग से देखें तो यह एक निर्दोष प्रेम कविता भी है जिसमें अपने नामों के इतिहास में गायब हो जाने के बाद भी बचे रहने की हर संभावना मौज़ूद होती है । कवि इस संभावना को एक रंग देता है । वह इस संभावना को पृथ्वी के गोल होने के मिथक से जोड़ देता है और ऐसा करते हुए अपने लिए  पृथ्वी की सी सहनशीलता को अर्जित कर लेता है । 


हम बचे रहेंगे कविता में बचे होने का मतलब एक दूसरे के आसमानों में बचे रहना है । आसमान की दूधिया सफ़ेदी में भी प्रकाश के सातों रंग बचे रहते हैं । प्रेम वह सात रंगों वाला इन्द्रधनुष है जो सब कुछ के रीत जाने के बाद भी बचा रहता है । कविता की आखिरी पंक्ति में आसमानी शब्द का इस्तेमाल   ग़ैर ज़रूरी सा लगता है क्योंकि इसके पहले वाली पंक्ति में ही कवि आसमान शब्द का प्रयोग कर चुका है । इसे धृष्टता न समझा जाए तो विमलेश जी के लिए यह विनम्र प्रस्ताव रहा कि कविता की अन्तिम पंक्ति को इस तरह भी लिखा जा सकता है कि हम बचे रहेंगे एक दूसरे के आसमान में सतरंगों की तरह । या सतरंगी सपनों की तरह । 


नयी किताब , दिल्ली से प्रकाशित विमलेश त्रिपाठी का यह ताज़ा संग्रह ज़रूर अपनी ताज़गी के लिए रेखांकित किया जायेगा यह उम्मीद की जानी चाहिए ।
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                                                                                        हम बचे रहेंगे – विमलेश त्रिपाठी {कविता संग्रह}
'नयी किताब',
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1 comment:

  1. सहमत हूँ ..की आप काफ़ी प्रभावी कविताएँ लिखते हैं ..
    सटीक विश्लेषण किया गया हैं समीक्षा में

    बधाई

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