http://www.youtube.com/watch?v=C8izcrFyE1c 'हम बचे रहेंगे' पर प्रो. नावर सिंह और मदन कश्यप की बातचीत
हम बचे रहेंगे
Tuesday, October 2, 2012
हम बचे रहेंगे पर आदरणीय नामवर सिंह और प्रिय कवि मदन कश्यप की बातचीत
http://www.youtube.com/watch?v=C8izcrFyE1c 'हम बचे रहेंगे' पर प्रो. नावर सिंह और मदन कश्यप की बातचीत
Tuesday, September 18, 2012
हम बचे रहेंगे पर प्रफुल्ल कोलख्यान
हम बचे रहेंगे
(काव्य संकलन)
विमलेश त्रिपाठी
नयी किताब, दिल्ली, 2011
पृ. 112 /कीमत : `200.00
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इतिहास से आती लालटेनों की मद्धिम
रोशनियाँ
- प्रफुल्ल कोलख्यान
'हम बचे रहेंगे' युवा कवि
विमलेश त्रिपाठी का पहला संग्रह है। विमलेश त्रिपाठी की इन कविताओं को देखने से यह
एहसास सहज ही हो जाता है कि हम एक खतरनाक समय में रहते हैँ हमारे समय में एक आदमी
और उससे जुड़ा आम कवि निरंतर अपने बचे रहने के संशय में पड़ा रहता है। बचा रहना
चाहे जितना भी मुश्किल हो लेकिन बचे रहने के संशय में निरंतर पड़े रहना एक
नकारात्मक बात है। तो क्या विमलेश त्रिपाठी की कविताओं में नकार का पूंज है !
ऐसा नहीं है। क्योंकि आज का आदमी और आम
आदमी का कवि न सिर्फ बचे रहने के संशय में पड़ा रहता है बल्कि बचे रहने को संभव
करते रहने के लिए लगातार संघर्षशील भी बना रहता है। बचे रहने की संभावनाओं को
निरंतर सिरजते रहना ही आम आदमी के जीवन और आम आदमी की की कविताओं को नित्य
संभावनाशील बनाये रखता है।
यही संभवानाशीलता विमलेश त्रिपाठी की कविता को एक निजी वैशिष्ट्य और सामूहिक आकांक्षा से जोड़कर उल्लेखनीय बनाती है। विमलेश त्रिपाठी की कविता का भाषिक व्यवहार जहाँ एक ओर अपनी भौगोलिकता की निजी भंगिमा को अपने अंदर रचता रहता है वहीं दूसरी ओर अपने सपनों के भावाकाश में विचरते हुए कविता की सधी हुई जमीन पर अपने लौट आने को उसी तरह से संभव करता है जिस तरह से रात के चौथे पहर, पंछियों की नींद में धीरे-धीरे चेतना का घुलना संभव होता है।
यही संभवानाशीलता विमलेश त्रिपाठी की कविता को एक निजी वैशिष्ट्य और सामूहिक आकांक्षा से जोड़कर उल्लेखनीय बनाती है। विमलेश त्रिपाठी की कविता का भाषिक व्यवहार जहाँ एक ओर अपनी भौगोलिकता की निजी भंगिमा को अपने अंदर रचता रहता है वहीं दूसरी ओर अपने सपनों के भावाकाश में विचरते हुए कविता की सधी हुई जमीन पर अपने लौट आने को उसी तरह से संभव करता है जिस तरह से रात के चौथे पहर, पंछियों की नींद में धीरे-धीरे चेतना का घुलना संभव होता है।
'मंदिर की घंटियों की आवाज के साथ / रात के चौथे पहर / जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है। / वैसे ही आऊँगा मैं।'[1]
इन दिनों जब जीवन की समकालीनता का एक
आयाम वैश्विक होने की जुगत में लगा हुआ है। दूसरा आयाम अपने निकृष्टतम अर्थों में
स्थानिकता की चपेट में आता जा रहा है। विमलेश त्रिपाठी की कविता में वैश्विकता और
स्थानिकता के जुड़ाव के कोमल तंतुओं को बचाये रखने का प्रयास कविता के सपने के
गर्भ में पड़े आदिम वीर्य को जीवन-क्षम
बनाये रखने का प्रयास है। 'स्त्री
थी वह सदियों पुरानी / अपने गर्भ
में पड़े आदिम वीर्य के मोह में / उसने
असंख्य समझौते किये / मैं उसका
लहू पीता रहा सदियों / और दिन-ब-दिन और खूँखार होता रहा... '[2]। क्या यह सदियों पुरानी स्त्री कविता है !
कौन बतायेगा ! कहा जा सकता है कि विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ स्थानिक
होकर भी वैश्विक है या वैश्विक होकर भी स्थानिक है। सही बात तो यह है कि स्थानिक
और वैश्विक, आत्मिक और अनात्मिक,
मम और ममेतर एक साथ होकर ही कोई उक्ति
काव्य की कोटि में आती है। डॉ. शंभुनाथ
ने कविता पर चिंता व्यक्त करते हुए रेखांकित किया था कि `कुछ कवियों को हिंदी में
विश्व कविता लिखने का चस्का लग गया। जनता से संवाद करने का विचार लेकर कविता लिखने
की आदत पहले ही छूट चुकी थी। उन्हें अच्छी तरह पता चल गया था कि हिंदी समाज में
भजन-कीर्त्तन, नाच-तमाशा, खाने-पीने के संस्कार
खूब हैं, पर काव्यात्मक संस्कार नदारद हैं। इसलिए सिर्फ
कवियों से संवाद के उद्देश्य से कविता लिखने की प्रवृत्ति
ने ऐसे कवियों में विश्व कविता लिखने की महत्त्वाकांक्षा भी पैदा कर दी। कविता के
निजीकरण के साथ-साथ विश्वीकरण का उफान पैदा हुआ। पिछले पचास
सालों की अच्छी कही जानेवाली हिंदी कविताओं में से एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जिनका भारतीय दुनिया की विशिष्टताओं और विडंबनाओं से कोई संबंध नहीं है।'[3] विमलेश
त्रिपाठी की कविता डॉ. शंभुनाथ से सहमत लोगों की इस चिंता को
पूरा नहीं भी तो बहुत हद तक कम अवश्य करती है।
बचे रहने का खतरा जब सिर पर मँडरा रहा है। बचे रहने का खतरा जब सिर पर मँडराता है, कवि मंत्र की तरह बुदबुदाता है-- हम बचे रहेंगे। बचे रहेंगे, सपनों में, बच्चों की मुस्कान में, प्रेमिका के चितवन में, पत्नी के आग्रह में, लगातार दूर होते जा रहे अपने होने के सपनों या फिर कवि के शब्दों में कहें तो 'हम बचे रहेंगे एक-दूसरे के आसमान में / आसमानी सतरंगों की तरह'[4]।
मानव सभ्यता की लंबी यात्रा में, अबौद्धिकता का जोखिम उठाते हुए भी, सुकुमार सपनों का सनातन निवास कविता ही रही है। कविता में जीवन के यथार्थ के प्रति सलूक का अपना सलीका होता है। हमारे समय में इस सभ्यता विकास के साथ ही यथार्थ के प्रति प्रगतिशील आग्रह भी बढ़ा है, मोह भी बढ़ा है। मुश्किल यह है कि कविता में इस आग्रह के लिए कोई स्थान न हो तो उसकी सार्थकता नहीं बनती है और सपनों के सौकुमार्य का समावेश न हो तो कविता खुद नहीं बचती है। कवि इस मुश्किल से कैसे पार पाये ! कविता में यथार्थ को संरक्षित रखना और कविता में काव्यत्व को टिकाये रखना कवियों के सामने बड़ी चुनौती है। कवि की संभावनाशीलता इस तरह भी देखी जा सकती है कि वह इस चुनौती का सामना कैसे करता है ! क्या उस दिहाड़ी मजूर की तरह जो जीवन के सौ-सौ पतझड़ों के बीच भी पी लेता है बसन्त के कुछ घूँट या उस औरत की तरह जो अँधेरे भुसौल घर में चिरकुट भर रह कर अपने सपने में महसूसती है एक अधेड़ बसन्त ! कविता में देखें तो यही दिखेगा कि 'एक दिहाड़ी मजूर / रगों के दर्द को भुलाने के लिए / मटर के चिखने के साथ / पीता है बसन्त के कुछ घूँट / / एक औरत अँधेरे भुसौल घर में / चिरकुट भर रह गयी बिअहुति / साड़ी को स्तन से चिपकाए / महसूसती है एक अधेड़ बसन्त'[5]।
कभी फैज को इस सवाल ने परेशान किया था कि 'ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका /
किसलिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है ?'[6] सिलसिला
जारी है और सवाल आज भी परेशान करता है कि गेहूँ की लहलहाती बालियों के बीच सरसों
के फूल की तरह पियराये हुए किसान के चेहरे पर बसन्त के उल्लास के वेष में कोल्हू
में पेरे जाने का दर्द किस तरह अपने को परकट करता है, क्यों 'गेहूँ की लहलहाती / बालियों के बीच / वह खड़ा है / सरसों के फूल की तरह / एकदम
पियराया हुआ'[7]।
वक्त बहुत तेजी से क्रूरता में ढल रहा है। ठहरकर सोचने की जरूरत है कि पीड़ा के किस भयावह दौर से गुजरकर यह अनुभूति कविता में दबे पाँव उतरने का साहस कर पाई होगी कि 'जितने समय में लिखता हूँ मैं एक शब्द / उससे कम समय में / मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है / उससे भी कम समय में / बहन 'औरत से धर्मशाला' में तब्तील हो जाती है।'[8] कितना भयावह होता है बेरोजगार भाई का आत्महत्या कर लेने पर मजबूर हो जाना, बहन का औरत से धर्मशाला में तब्दील हो जाना ! इस भयावहता को शब्दों में व्यक्त करना या इसकी प्राथमिकी लिखना प्रशासन के लिए चाहे जैसा भी काम हो कविता के लिए तो यह सजा ही है ! कविता सजा नहीं काटती है बल्कि इस सजा को काटती है, इस दुख को संवेदना का इंजन बनाती है और भरोसा दिलाती है कि 'यह दुख ही ले जाएगा / खुशियों के मुहाने तक / यही बचायेगा हर फरेब से / होठों पे हँसी आने तक'[9]। क्योंकि `धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँख / और लोकगीत की तरह गाने वाली आवाज से ही / सुबह होती है / और परिंदे पहली उड़ान भरते हैं।'[10] अभी भी ! यह सच है कि कविता में दुख जब किसी 'वाद' के बोध के तहत आता है तो वह कुछ और होता है जैसा कि रघुबीर सहाय ने 'आत्महत्या के विरुद्ध' की कविताओं में महसूस किया था और कविता में उसके प्रकट होने को देखा था कि `इतना दुख मैं देख नहीं सकता । // कितना अच्छा था छायावादी / एक दुख लेकर वह एक गान देता था / कितना कुशल था प्रगतिवादी / हर दुख का करण वह पहचान लेता था / कितना महान था गीतकार / जो दुख के मारे अपनी जान लेता था / कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में / जहाँ मरता है सदा एक और मतदाता।' कहना न होगा कि विमलेश त्रिपाठी की कविता में दुख किसी 'वाद' के बोध के तहत नहीं आता है। विमलेश त्रिपाठी की कविता में दुख मतदाता-विमर्श का हिस्सा नहीं है। विमलेश त्रिपाठी की कविता में दुख कविता का नैसर्गिक नागरिक है। इसके बावजूद पत्रकार-कवि राजकिशोर का यह आग्रह बहुत गहरई से ध्यान देने योग्य है कि `कवि जी ऐसा भी कुछ लिखिए / जिसमें थोड़ा-खुश दिखिए // कठिन समय है क्रूर लोक है / जिधर देखिए उधर शोक है / लेकिन हमें डराते क्यों हैं रह-रह अश्रु बहाते क्यों हैं'।[11]
यह संतोष की बात है कि विमलेश त्रिपाठी रह-रह अश्रु नहीं बहाते हैं।
ऐसा बहुत कुछ है विमलेश त्रिपाठी की कविताओं में जो भरोसे के तंतु को बचाता है और विश्वास दिलाता है कि 'शेष है अभी भी / धरती की कोख में / प्रेम का आखिरी बीज'[12], विमलेश त्रिपाठी की कविता में पुकार है कि 'और अब हमें / अपनी-अपनी गहराइयों में लौटना है।'[13] इस पुकार पर विश्वास किया जाना चाहिए कि अपनी-अपनी गहराइयों में यह लौटना हताहत लौटना नहीं, सबके हिताहित को सोचता हुआ पूर्णतर लौटना है, क्योंकि यही कवि का वादा है कि 'हताहत नहीं / सबके हिताहित को सोचता / पूर्णतर लौटूँगा'[14]।
प्रफुल्ल कोलख्यान
ए-8/16, आवासन 134/3, सी.सी. मुखर्जी स्ट्रीट
कोननगर, हुगली- 712235, पश्चिम बंगाल
Wednesday, August 29, 2012
समीक्षा-समीक्षा
‘हम बचे रहेंगे’ एक-दूसरे
के आसमान में,
आसमानी संतरंगों की तरह
आसमानी संतरंगों की तरह
-महेश चंद्र पुनेठा
जब बूढ़ों के पास नहीं रह गई है सकून की नींद ,बच्चों के पास खेल ,चिडि़यों के पास
अन्न ,आदमी के
पास सुरक्षा ,औरतों के
पास उनके गीत, लोक के पास
अपनी पहचान । सिमटती जा रही है दुनिया और संवेदनाएं भौंथरी होती जा रही हैं।
रोज-ब-रोज सिकुड़ती जा रही पृथ्वी। आदमी एकाकीपन झेलने को अभिशप्त है। सच
लुप्तप्रायः हो गया है कविता के सिवाय। झूठ घूमता है सीना ताने। शब्द खतरे में
हैं। शब्दों ने पहन दिए हैं मुखौटे। वे बाजीगरी करने लगे हैं। कई मसखरे हैं अपनी
आवाजों के जादू से लुभाते। नंगे हो रहे हैं शब्द ,हाँफ रहे हैं। हमारे जीवन से लगातार बहुत
कुछ क्षरित होते जा रहा है। छीजता जा रहा है।
कुछ ऐसा जो मनुष्यता के लिए जरूरी है। शायद इसी का दबाब है कि इधर युवा
कवियों की कविताओं में उदासी और अकेलेपन का भाव बहुत दिखाई दे रहा है जो स्वाभाविक
भी है।
युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के सद्य प्रकाशित कविता संग्रह,‘हम बचे रहेंगे’ से गुजरते हुए भी
यह लगातार महसूस होता रहा। उनकी कविताओं में उदास ,उदासी ,अकेला, अकेलापन ,एकांत जैसे शब्द बार-बार आते हैं। उनका-मन रह-रह कर हो जाता
है उदास और भारी....कविताओं से लंबी है उदासी/यह समय की सबसे बड़ी उदासी है/जो
मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आयी है। इस उदासी के कारण भी हैं-एक किसान
पिता की भूखी आँत है/ बहन की सूनी माँग है/छोटे भाई की कंपनी से छूट गयी नौकरी
है/राख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती/माँ की सूजी हुई आँखें हैं। .....हरे रंग हमारी
जिंदगी से गायब होते जा रहे हैं/और चमचमाती रंगीनियों के शोर से/होने लगा है नादान
शिशुओं का मनोरंजन/संसद में बहस करने लगे हैं हत्यारे। पर यह बहुत सकून देनी वाली
बात है कि कवि को इस बात का अहसास है कि उदासी कविता की हार है। यह उनकी कविता का
स्थाई भाव नहीं है-उदास मत हो मेरे भाई/तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है। वह
सांत्वना भरे लहजे में कहता है-उदास मत हो मेरे अनुज /मेरे फटे झोले में बचे हैं
आज भी कुछ शब्द/जो इस निर्मम समय में/तुम्हारे हाथ थामने को तैयार हैं/ और कुछ तो
नहीं /जो मैं दे सकता हूँ/बस मैं तुम्हें दे रहा हूँ एक शब्द/एक आखिरी उम्मीद की
तरह। उम्मीद भरा यही शब्द है जो उनकी रचनात्मकता को नया आयाम प्रदान करता है। तमाम
नाउम्मीदों के बावजूद भी उम्मीद के स्वर उनकी कविताओं में बराबर सुनाई देते हैं।
उनके यहाँ उम्मीदों की पड़ताल जारी रहती है। वे जानते हैं छोटी-छोटी एक टिमटिमाती
रोशनी भी आशा को बड़ा संबल प्रदान करती है। ‘सब कुछ खत्म हो गया।’ का अरण्य रुदन नहीं करते हैं। हाहाकार या विलाप। ‘यही क्या कम है।’ का भाव शेष बचा है
इन कविताओं में। उन्हें लगता है-शेष है अभी भी/धरती की कोख में/प्रेम का आखिरी
बीज/चिडि़यों के नंगे घोंसलों तक में /नन्हें-नन्हें अंडे। बढ़ती अविश्वसनीयता के
बावजूद उनका मानना है- कि विश्वास के एक सिरे से उठ जाने पर/नहीं करना चाहिए
विश्वास/और हर एक मुश्किल समय में/शिद्दत से/खोजना चाहिए एक स्थान/जहाँ रोशनी के
कतरे/बिखेरे जा सकें/अँधेरे मकानों में। इसी के चलते उनका विश्वास है -कई-कई
गुजरातों के बाद भी/लोगों के दिलों में/बाकी बचे रहेंगे/रिश्तों के सफेद खरगोश।
......कि पूरब से एक सूरज उगेगा/और फैल जाएगी/एक दूधिया हँसी/धरती के इस छोर से उस
छोर तक। इसी उम्मीद को वे पाठक के मन में बचाना चाहते हैं। इन कविताओं में आए ‘खरगोश के नरम रोए’ कहीं न कहीं इसी
उम्मीद के प्रतीक हैं। संग्रह की एक कविता है ‘इस बसंत में’ यहाँ भी उम्मीद खरगोश के रूप में जन्म लेती है- जंगल के
सारे वृक्ष काट दिए गए हैं/सभी जानवरों का शिकार कर लिया गया है/फिर भी इस बसंत
में/मिट्टी में धँसी जड़ों से पचखियाँ झाँक रही हैं/ और घास की झुरमुट में एक मादा
खरगोश ने/दो जोड़े उजले खरगोश को जन्म दिया हैै।
इसी तरह तो जन्म लेती है हमारे जीवन में उम्मीद या रोशनी। उनकी कविताओं का ‘सच तो यह है’-कि मरे से मरे समय
में भी कुछ घट सकने की संभावना/हमारी साँसों के साथ ऊपर-नीचे होती रहती है/और
हल्की-पीली सी उम्मीद की रोशनी के साथ/किसी भी क्षण परिवर्तन के तर्कों को/अपनी
घबराई मुट्ठी में हम भर सकते हैं/और किसी पवित्र मंत्र की तरह करोड़ों/लोगों के
कानों में फूँक सकते हैं। कवि का दृढ़ विश्वास है कि-कोई भी समय इतना गर्म नहीं
होता/कि करोड़ों मुट्ठियों का एक साथ पिघला सके। ’यही सब है जो उनको‘ बीहड़ रास्तों ,कंटीली
पगडंडियों-तीखे पहाड़ों पर’
चढ़ने
का साहस देती है। वे-उम्मीद की एक आखिरी रोशनी तक/ एक अदद पवित्र जगह की खोज में ’ रहते हैं। यह खोज
अपने घर-गाँव से शुरू होकर विश्व मानव तक
चलती है। वे अपने मुल्क से बेदखल एक अंतहीन युद्ध से थके हुए शरणार्थियों के
चेहरों पर देख लेते हैं बाकी बची हुई जिंदा रहने की थकी हुई जिद को। साथ ही उनकी
पीड़ा को जो आलोच्य संग्रह की ‘रिफ्यूजी कैंप’ कविता इस प्रकार व्यक्त होती है- पृथ्वी पर एक और पृथ्वी
बनाकर/वे सोच रहे हैं लगातार/कि इस पृथ्वी पर कहाँ है /उनके लिए एक जायज जगह/जहाँ
रख सकें वे पुराने खत सगे-संबंधियों के /छंदों में भीगे राग सुखी दिनों के/गुदगुदी
शरारतें स्कूल से लौटते हुए बच्चों की/शिकायतें काम के बोझ से थक गयी/प्रिय
पत्नियों की । एक विश्वदृष्टि से लैस कवि ही महसूस कर सकता है कि- उनकी नशों में
रेंग रही है/अपनों की असहाय चीखें/और उनके द्वारा गढ़े गए/एक नष्ट संसार की पागल
खामोशी /जिन्हें टोहती आँखों में लेकर वे बेचैन घूमते हैं/उनकी मासूम पीठों पर लदी
हैं/जंगी बारूदों की गठरियाँ/और हृदय में सो रही अनेक ज्वालामुखियाँ हैं। कवि
विमलेश की खासियत है कि कविता में जीवन में व्याप्त तमाम
विसंगतियों-विडंबनाओं-उदासियों का जिक्र करते हुए उन सब के बीच छुपी हुई उम्मीद की
छोटी सी चिनुक को भी दिखाना नहीं भूलते। उक्त
कविता के अंत में वे लिखते हैं- और सबकुछ होकर भी वे बना लेना चाहते हैं
अंततः/उम्मीद के रेत पर/ छूट गए अपनी-अपनी दुनिया के साबुत नक्शे /फिलहाल उनके
लिए/यह दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है। इस कविता से पता चलता है कि इस कवि की
दुनिया सीमित नहीं है। वह विश्व नागरिक बनकर देखता है जो एक अच्छे कवि के लिए
जरूरी भी है।
उनके यहाँ ‘बचाना’ बीज शब्द के रूप
में आता है। मनुष्यता के लगातार छीजते जाने के दौर में उसका आना अस्वाभाविक या
अटपटा नहीं लगता है। बल्कि लगता है-किसी समय के बवंडर में खो गए/किसी बिसरे साथी
के/जैसे दो अदृश्य हाथ/उठ आए हैं हार गए क्षणों में। भले ही यकीन जीवन के हर
क्षेत्र से छीजता जा रहा हो लेकिन विमलेश के यहाँ बचा हुआ है ‘यकीन’। इस कवि का ‘हम बचे रहेंगे’ का स्वर बहुत
आश्वस्तिकार प्रतीत होता है। ‘सब कुछ के रीत जाने के बाद भी/माँ की आँखों में इंतजार का
दर्शन बचा रहेगा/अटका रहेगा पिता के मन में/अपना एक घर बनाने का विश्वास ’ उनका यह स्वर यकीन
दिलाता है। इसके पीछे भी ठोस कारण हैं। वह मानता हैै-एक उठे हाथ का सपना/ मरा नहीं
है/जिंदा है आदमी। ये दो कारण काफी हैं यकीन को जिंदा रखने के लिए। सब कुछ रीतते
जाने के इस दौर में यह विश्वास ही है जो आदमी को लड़ने का साहस
देता है। उसकी जीने की ताकत बनता है। बदलाव की प्रेरणा प्रदान करता है। ‘सब खत्म हो गया
हैै।’ का
नैराश्यपूर्ण भाव इन कविताओं में नहीं है और न ही केवल अपने को बचा लेने का
व्यक्तिवाद। वह विश्वास भरे स्वर में कहता है-
हम बचे रहेंगे एक-दूसरे के आसमान में/आसमानी संतरंगों की तरह।’ इसमें एक गहरा
सामूहिकता का भाव निहित है। इन कविताओं में ‘मैं’ की अपेक्षा ‘हम’ का प्रयोग
अधिक हुआ है। इसके गहरे निहितार्थ निकलते हैं। यह इस बात का परिचायक है कि कवि
अकेले चलते जाने का नहीं बल्कि एक-दूसरे को सम्हाले-हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ने पर
विश्वास करता है-हम चल रहे थे एक दूसरे को सम्हाले/कदम हमारे हाँफते हुए/हमारी थकी
साँसें एक दूसरे को सहारा देती हुई। इतिहास गवाह है बड़ी लड़ाइयाँ हमेशा मिलजुलकर
ही लड़ी और जीती गई हैं। उनकी कविताओं में
जबरदस्त आशावादिता भरी है- जहाँ सबकुछ खत्म होता है/सबकुछ वहीं से शुरू
होता है।
विमलेश के यहाँ ‘बचाने’ की क्रिया अवश्य
बार-बार आई है पर उनका बचाने का आग्रह कातरतापूर्ण चिंता और बेचैनी से भरा हुआ
नहीं है। उन चीजों के लिए नहीं है जिन्हें जीवन की बजाय संग्रहालयों में होना
चाहिए। वे पुराने उत्पादन के साधनों और जीवन शैली को बचाने के अंधसमर्थक नहीं हैं।
उसे बचाना चाहते हैं जो वैज्ञानिक ,जनपक्षीय व श्रमपक्षीय और मानवीय है। कवि कोशिश करता है
-आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने की। वह पृथ्वी को साबूत बचाना चाहता है। वह
शब्दों को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। उस उदासी,कराह बेवशी ,आदमी के भीतर के ताप को पकड़ना चाहता है जो ‘शब्दों के स्थापत्य
के पार है’ अर्थात जो
शब्दों की पकड़ से बाहर है। ये कहना सही नहीं लगता है कि ‘बचाना’ हमेशा
पुनरुत्थानवादी होना है। अतीत में बहुत कुछ प्रगतिशील और मानवीय भी हो सकता है और
होता भी है। आलोचनात्मक विवेक रखते हुए सार्थक को बचाने की इच्छा रखना कहाँ गलत है? जैसे प्रतिरोध ,सामूहिकता जैसे
मूल्य जो हमें आज की अपेक्षा अतीत में अधिक मिलते हैं। हाँ, हर पुराने को बचाने
का अतिरिक्त आग्रह नहीं होना चाहिए। नया बनाने का स्वप्न, साहस ,मंसूबा भी तो अतीत
के आलोचनात्मक विश्लेषण से ही मिलता है। जैसा कि इस संग्रह के प्रारम्भ में
उल्लिखित कवि शमशेर बहादुर सिंह की इन पंक्तियों में भी झलकता है- भूलकर जब
राह-जब-जब राह.....भटका मैं /तुम्ही झलके ,हे महाकवि/सघन
तम की आँख बन मेरे लिए।’ यह भी तो एक तरह से बचाना ही है। विमलेश के लिए कविता लिखना
भी बचाने की लड़ाई का हिस्सा है-एक ऐसे समय में/जब शब्दों ने भी पहनने शुरू कर दिए
हैं/तरह-तरह के मुखौटे/शब्दों की बाजीगरी से/पहँुच रहे हैं लोग सड़क से संसद
तक/.....एक ऐसे समय में/शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूँ लड़ाई।
कवि को दुःख अवश्य है-कि सदियों हुए माँ की हड्डियाँ हँसी नहीं/पिता के
माथे का झाखा हटा नहीं/और बहन दुबारा ससुराल गयी नहीं....। पर वे यह भी अच्छी तरह
जानते हैं कि......यह दुःख ही ले जाएगा/खुशियों के मुहाने तक/वही बचाएगा हर फरेब
से/होठों पे हँसी आने तक। विमलेश की यही खासियत है कि दुःख उन्हें कुंठा या हताशा
के ब्लैक होल में नहीं डुबोता है बल्कि प्रतिरोधक टीके की तरह उनके लड़ने की
क्षमता बढ़ाता है। इसी का फल है कि दुनिया के दुःखों के सामने कवि को अपने दुःख
छोटे लगते हैं। ऐसा एक कवि ही महसूस कर सकता है अन्यथा आज तो हर व्यक्ति को अपना
ही दुःख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख लगता है-अँटी पड़ी है पृथ्वी की छाती/असंख्य
दुःखों से/मेरे दुःख की जगह कितनी कम/जिए जा रहे हैं लोग उजले दिनों की आशा में।
यह बात विमलेश की कविता की विशिष्टता है। कविता का काम पाठक को निराश या कुंठा के
कुँए में धकेलना नहीं बल्कि उससे उबारना है। ये कविताएं वह काम करती हैं। उजले
दिनों की आशा इनमें हमेशा झिलमिलाती रहती है। बावजूद असंख्य दुःखों के अटे पड़े
होने पर भी। कवि ईश्वर को भले एक तिलिस्म मानता है फिर भी स्वीकार करता है कि वह
इन दुःखों को सहने की ताकत देता है-सोचता हूँ इस धरती पर न होता/यदि ईश्वर का
तिलिस्म/तो कैसे जीते लोग/किसके सहारे चल पाते/.....मन हहर कर रह जाता है/दुःख तब
कितना पहाड़ लगता है।
विमलेश का एक और मानना है कि प्रेम का एक पूरा ब्रह्मांड है जो इस पृथ्वी
को बचाएगा। उम्मीदों से भरा कवि ही प्रेम कविता लिख सकता है। उसे सभ्यता का सबसे
पवित्र कर्म कह सकता है। एक कठिन समय में जबकि प्रेम करना सभ्यता का सबसे खतरनाक
कर्म हो -उसके कानों में/कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द, कह सकता है।
प्र्रेम को खतरनाक कर्म कहते हुए कवि के स्मृति में कहीं न कहीं ‘आॅनर किलिंग’ की घटनाएं रही
होंगी। प्रेम शब्द को ही अर्थ-विस्तार नहीं प्रदान करता है बल्कि जीवन को भी नए
अर्थ प्रदान करता है-जब मैंने पहली बार प्यार किया/तो समझा-सपना केवल शब्द नहीं ,एक सुंदर गुलाब
होता है/ जो एक दिन /आँखों के बियाबान में खिलता है /और हमारे जीने को/देता है एक
नया अर्थ/(अर्थ ,कि
आत्महत्या के विरुद्ध एक नया दर्शन) । प्रेम का ही कमाल है ‘पहली बार ’ कविता में प्रेम के
गहरे अहसासों को नए बिंब मिले हैं। एक प्यार करने वाला हृदय ही ऐसे बिंब दे सकता
है। ऐसी कल्पनाएं वहीं जन्म ले सकती हैं जो प्रेम की शब्दातीत अनुभूति से गुजरा
हो। प्रेम कल्पना को नए पंख प्रदान कर देता है। सुखद यह है कि प्रेम करते हुए भी
कवि गगन बिहारी नहीं हो जाता है बल्कि अपने आसपास की चीजों को ही नए प्रतीकों-रूपकों
में बदल देता है। उनमें नए अर्थों का संधान कर देता है। सच्चे प्रेम की यही खासियत
है वह पात्र को जमीन से दूर नहीं बल्कि अपनी जमीन में और अधिक गहरे पैंठा देता है।
उसके भीतर संवेदना का इतना विस्तार कर देता है कि कवि मनुष्यता का नया इतिहास रचता
है- ‘लोग जिसकी
ओट में सदियों से रहते आए थे/कि जिन्हें अपना होना कहते थे/उन्हीं के खिलाफ रचा
मैंने अपना इतिहास/जो मेरी नजर में मनुष्यता का इतिहास था/और मुझे बनाता था उनसे
अधिक मनुष्य/इस निर्मम समय में बचा सका अपने हृदय का सच।’ यही इस कवि की बड़ी
बात है।
कवि एक ऐसी दुनिया का सपना देखता है जहाँ सभी सुरक्षित हों, खुशहाल हों ,पर्याप्त अन्न हो , बूढ़ों के लिए सकून
की नींद और बच्चों के लिए खेल हों-जहाँ ढील हेरती औरतें /गा रही हों झूमर अपनी
पूरी मग्नता में/लड़कियाँ बेपरवाह झूल रहे हों रस्सियों पर झूले/ मचल रहे हों जनमतुआ
बच्चे अघाए हुए। वे ऐसी कविता लिखना चाहते हैं-कि समय का पपड़ाया चेहरा हो उठे
गुलाब/झरने लगे लगहरों के थनों से झर-झर दूध/ हवा में तैरने लगे अन्न की सोंधी
भाप। कवि नहीं चाहता है ऐसी ‘तिकड़मी दुनिया’ ‘जिसके लिए सजानी होती हैं गोटियाँ’ न कुछ ऐसा जिसके होने
से कद का ऊँचा होना समझा जाता है। उसे
तो-चाहिए थोड़ा सा बल ,एक रत्ती
भर ही त्याग/और एक कतरा लहू जो बहे न्याय के पक्ष में/उतना ही आँसू भी/थोड़े शब्द
/रिश्तों को आँच देते/जिनके होने से/जीवन लगता जीवन की तरह/एक कतरा वही चाहे वह जो
हो/लेकिन जिसकी बदौलत /पृथ्वी के बचे रहने की संभावना बनती है। इससे कवि के
सरोकारों का पता चलता है।
कवि को आधी रात में ‘हिचकी’
आती
है तो वह सोचता है कि कौन उसे याद कर सकता है?माता-पिता या घर वाले तो उसे याद नहीं कर सकते हैं
क्योंकि-......पिता ने मान लिया निकम्मा-नास्तिक/नहीं चल सका उनके पुरखों के
पद-चिन्हों पर/ माँ के सपने नहीं हुए पूरे/नहीं आयी उनके पसंद की कोई घरेलू
बहू/उनकी पोथियों से अलग जब/सुनाया मैंने अपना निर्णय/जार-जार रोयीं घर की
दीवारें। ......ऐसे में याद नहीं आता कोई चेहरा /जो सिद्दत से याद कर रहा हो/इतनी
बेसब्री से कि रूक ही नहीं रही वह हिचकी। कवि का मानना सही है ,दरअसल याद तो उसे
ही किया जाता है जो सबकी हाँ में हाँ मिलाता है। पुरखांे की बनायी हुई लीक पर चलता
है। विरोध करने वाले को न कोई पसंद करता है और न ही कोई याद। कवि हारता और अकेला
होता जाता है। यथास्थिति के खिलाफ जो लड़ाई लड़ता है उसके साथ ऐसा होना कोई
आश्चर्य की बात नहीं। यह कविता एक तरह से कवि का पूरा परिचय करा देती है। साथ ही
उसकी प्रतिबद्धता भी बता देती है। इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि कवि
जीवन-संग्राम में किन लोगों तथा मूल्यों के पक्ष में है और किनके विरोध में।आदमी
के पक्ष में खड़ा हो कवि अधिक मनुष्य बनना चाहता है। सच को बचाना चाहता है। दुःसमय
के खिलाफ खड़ा होता है। यह कवि की पक्षधरता को स्पष्ट कर देती है- कहीं ऐसा तो
नहीं कि दुःसमय के खिलाफ/बन रहा हो सुदूर कहीं आदमी के पक्ष में/कोई एक गुप्त
संगठन/और वहाँ एक आदमी की सख्त जरूरत हो। वास्तव में कवि की जरूरत किसी ऐसे व्यक्ति या संगठन को ही
हो सकती है जो दुःखी-शोषित-पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहा हो। यह अलग बात है कि आज का
कवि इस तरह के संगठनों से परहेज करते हुए अपने को केवल कविता लिखने तक सीमित रखना
चाहता है।
विमलेश की अपने आसपास के अति परिचित और साधारण दृश्यों पर पैनी दृष्टि रहती
है। आमजन के छोटे-छोटे और मासूम सपनों को अपनी कविताओं मंे जगह देते हैं-आखिरी बची
रह गयी लड़की का पिता/जिम्मेदारियों से झुकी गर्दन लिए पड़ा है/पुआल के नंगे
बिस्तर पर/सुनता है झूमर-बंदे मेरे लंदन में पढि़ के आये/बेटी को एक नचनिया के साथ
ब्याह कर/चैन से मर जाने के सपने देखता हुआ।.......गाँव से चिट्ठी आयी है/और सपने
में गिरवी पड़े खेतों की/फिरौती लौटा रहा हूँ/पथराए कंधे पर हल लादे पिता/खेतों की
तरफ जा रहे हैं/और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ/घुंघरू की तान की तरह
लयबद्ध बज रही हैं। विमलेश की कविता उन
लोगों की कविता है जिनके लिए रोटी भी एक सपना है। वह बहुत सही कहते हैं कि-भैरवी
की महक/अधिक लुभावनी नहीं हो सकती/बाजरे की सोंधी महक से। विमलेश की कविता की
-छुअन में मंत्रों की थरथराहट/भाषा में साँसों के गुनगुने छंद /स्मित होठों का
संगीत ’ है ,जो इस संग्रह के
शुरू से अंत तक की कविताओं में तैर रहा है। उनकी कविता आश्वस्त करती है -कि रह
सकता हूँ/इस निर्मम समय में अभी/कुछ दिन और/उग आए हैं कुछ गरम शब्द/मेरी स्कूली
डायरी के पीले पन्ने पर/और एक कविता जन्म ले रही है। उनकी कविता -अँधेरे में एक
आवाज है/ अंधेरे को/रह-रह कर बेधती। विमलेश के लिए कवि होना ही ईश्वर होना है। वे
आत्मा की संपूर्ण शक्ति भर से फूँक देते हैं निश्छल प्राण।
उनकी कविताएं भाव और भाषा दोनों
में ही अपनी माटी की खुशबू लिए हुए हैं। ग्रामीण परिवेश और उसकी पूरी संस्कृति
जीवंत हो उठती है। अपने जन और जनपद के प्रति गहरा लगाव ही है जो महानगर में रहने
वाले कवियों के आधुनिकतावादी प्रभाव से उन्हें बचाए हुए है। आशा है आगे भी बचाए
रखेगा। वे भले महानगर में चले आए हों पर अपनी गँवई धूल की सोंधी गंध को नहीं भूले
हैं। उसे अपनी कविताओं में समेटे हुए हैं। गाँव और वहाँ के लोग,उनकी स्मृतियाँ , बोली-बानी के शब्द
बार-बार उनकी कविताओं में चले आते हैं। ‘गनीमत है अनगराहित भाई’ ,‘समय है न पिता’,‘बारिश’,‘तुम्हारे मनुष्य
बनने तक’, आदि
कविताएं इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। ‘गनीमत है अनगराहित भाई’ कविता में ये पंक्तियाँ आती हैं-आदमी बनने
इस शहर में आए हम/ अपने पुरखों की हवेली की तरह ढह गए हैं/ कि कितने कम आदमी रह गए
हैं। यह बेहतर जीवन की तलाश में गाँव से शहर की ओर जा रहे लोगों का एक कटु सत्य है
कि आदमी बनने के नाम पर जिन शहरों में जा रहे हैं ,वहाँ जो शिक्षा प्राप्त कर रहे है तथा वहाँ
के समाज से जो प्रभाव ग्रहण कर रहे हैं ,वह हमें आदमी बनाना तो छोड़ जो पहले से भी था हमारे भीतर
उसे भी छीन रहे हैं। शहर के इन अमानवीय प्रभावों को ‘समय है न पिता ’ कविता में कुछ इस
तरह व्यक्त किया गया हैै- फैल जाएगी धीरे-धीरे शहर की धूल/तुम्हारे घर के एक-एक
कोने तक/ तब कैसे बचाओगे पिता तुम/अपनी साँसों में हाँफ रही/पुरखों की पुरानी
हवेली। लेकिन विमलेश के कवि की खासियत है कि वह पुराने से चिपके रहने के पक्ष में
भी नहीं है। वह समय की गति को पहचानता है-चाहे भूल जाओ तुम समय को/ अपने संस्कारों
की अंधी भीड़ में/पर समय पिता/वह तो बदलेगा आगे बढ़ेगा ही उसका रथ/तुम चाहे बैठे
रहो/अपने झोले में आदिम स्मृतियाँ संजोए/पर एक बार हुई सुबह दुबारा/वैसी ही नहीं
होगी। पिता असम्भव सपने में खोए हैं। उनके सांसों में हाँफ रही है पुरानी हवेली
पुरखों की जो शहर की धूल से भर गई है। समय से भागा नहीं जा सकता है। वे सही सलाह
देते हैं- संस्कारों की अंधी भीड़ को भूल जाओ।समय तो बदलेगा ही । आगे बढ़ेगा ही।
समय का बदलना एक यथार्थ है जिसे रोका नहीं जा सकता है। जरूरी है उसके साथ तालमेल
स्थापित करना क्योंकि- हर आने वाला दिन /नहीं होगा बिल्कुल पहले की तरह।
प्रस्तुत संग्रह में अनेक स्त्री विषयक कविताएं भी हैं जिनमें स्त्री माँ ,बहन ,पत्नी ,प्रेमिका आदि के
रूप में आयी है। इन कविताओं में स्त्री के प्रति उनके सम्मान ,संवेदना और
सहानुभूति का पता चलता है।साथ ही इस बात का कि एक औरत को पुरुष प्रधान समाज में
क्या-क्या झेलना पड़ता है?यह केवल आज
की बात नहीं है बल्कि सदियों से यह सिलसिला चला आ रहा है। उनकी स्त्री पात्र अभी
भी वे अपने लिए सुरक्षित जगह ही तलाश रही हैं- इतिहास के जौहर से बच गई
स्त्रियाँ/महानगर की अवारा गलियों में भटक रही थीं/उदास खूशबू की गठरी लिए/उनकी
अधेड़ आँखों में दिख रहा था/अतीत की बीमार रातों का भय/अपनी पहचान से बचती हुई
स्त्रियाँ/वर्तमान में अपने लिए/सुरक्षित जगह की तलाश कर रही थी। यहाँ कवि के
इतिहासबोध का पता चलता है।जब वे ‘माँ’कविता में
यह कहते हैं-और माँ सदियों/एक भयानक गोलाई मेें/चुपचाप रेंगती रही। तब इतिहास में
स्त्री की स्थिति का बयान करते हैं। यही बात ‘स्त्री थी वह’ कविता में भी आती है-स्त्री थी वह सदियों पुरानी/अपने
गर्भ में पड़े आदिम वीर्य के मोह में/उसने असंख्य समझौते किए/मैं उसका लहू पीता
रहा सदियों/और दिन-ब-दिन और खूँखार होता रहा। उनकी दृष्टि में औरत धरती है असंख्य
बोझों से दबी हुई जिसके लिए प्रेम करना बहुत कठिन है। कवि इस बात को महसूस करता है
कि आज भी पुरुषों को जनने के ‘असंख्य दबाब’ में स्याह रातों में किवाड़ों के भीतर चुपचाप सुबह के इंतजार
में सिसक रही हैं। उनकी मनुष्य बनने की कठिन यात्रा आज भी समाप्त नहीं हुई है-चलती
कि हवा चलती हो/जलती कि चूल्हे में लावन जलता हो/...हँसती कभी कि कोई मार खाई
हँसती हो/रोती वह कि भादो में आकाश बिसुरता हो/...सहती वह कि अनंत समय से पृथ्वी
सहती हो/रहती वह/सदी और समय और शब्दों के बाहर/सिर्फ अपने निजी और एकांत समय
में/सदियों मनुष्य से अलग/जैसे एक भिन्न प्रजाति रहती हो। ‘महानगर में एक
माॅडल’ पूँजीवादी
व्यवस्था में औरत के जीवन की त्रासद व्यथा कथा है। बाजार स्त्री के शरीर का अपने हित में किस तरह
उपयोग करता है उसका बारीक चित्रण इस कविता में देखा जा सकता है। औरत की देह की
स्वतंत्रता के नाम पर उसको कैसे उत्पाद में बदल दिया गया है ? इस बात को यह कविता
बहुत अच्छी तरह समझा देती है। कभी वह रूपहले पर्दे पर अधनंगी दिखाई देती है तो कभी
ईख के खेत में चाॅकलेटी अभिनेता के साथ अभिसार करती हुई तो कुछ ही पल बाद झलमल
कपड़े में लपलपाती नजरों की कामुक दुनिया के बीच कैटवाॅक करती हुई बिडंबना देखिए
उसी रात एक सुनसान सड़क पर वह देखी गयी लड़खड़ाती हुई एक माॅडल लड़के के साथ और
आखिरी बार एक नर्सिंग होम में जहाँ दर्द के आवेश में चीखते हुए कह रही थी-मैं जीना
नहीं चाहती/मार डालो मुझे/मेरे खून में इस शहर की मक्कार बदबू रेंग रही है/ भर गया
है मेरी देह में/महानगरी आधुनिकता का सफेद लांछन /मैं जीना नहीं चाहती......। यहाँ
कविता एक प्रश्न छोड़ जाती है कि आखिर यह जीने की कैसी आजादी है जो जीने की इच्छा
ही खत्म कर देती है? यही है
पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री की आजादी का सच। इस सच को विमलेश की यह कविता बहुत
अच्छी तरह उद्घाटित कर देती है।
महेश चंद्र पुनेठा |
विमलेश कहते हैं कि- मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि/क्या आप मुझे क्षमा
कर सकेंगे? उनकी यह
क्षमा माँगने वाली बात गले नहीं उतरती है। आखिकार कवि को सबसे कम जादुई होने पर
अपराधबोध क्यों महसूस होता है जबकि जादुई न होने का मतलब तो है जनता के नजदीक होना
और जो गौरव की बात है किसी भी जनपक्षधर कवि के लिए। उनके क्षमा माँगने से ऐसा आभास
होता है कि उनके मन के किसी कोने में कवि के जादुई होने के प्रति एक आकर्षण है।
शायद यही कारण है कि वे खुद भी कहीं-कहीं कविता में चमत्कार पैदा करने से नहीं
चूकते हैं। उनकी कविताओं में बहुत कुछ ऐसा है जो वाग्मिता के चलते अव्यक्त या
अधूरा सा रह जाता है जिसको पाने या जिस तक पहुँचने के लिए पाठक को बार-बार और
अतिरिक्त कोशिश करनी पड़ती है। बात भाषा के पेंच में फँस सी जाती है। कुछ कविताओं
में शब्दों का अनावश्यक और लापरवाही से प्रयोग भी दिखाई देता है। संदर्भ के
विपरीत। भाषा के साथ तोड़-फोड़ करते हैं। वाक्य विन्यास का उनका अपना ही तरीका है।
कुछ कविताओं में कथ्य बिंबों के घटाटोप में छुप भी गया है। बावजूद इसके उनकी
कविताएं पाठक को भी सृजन के मौके देती हैं। यह अच्छी बात हैं कि कवि विमलेश अपने
लिखे में आत्ममुग्ध नहीं हैं। बहुत कुछ लिखने के बाद भी उन्हें भान है कि अभी बहुत
कुछ अधूरा है,तभी तो वह
कहते हैं-इस तरह उस सुबह ,बहुत कुछ
लिखा मैंने/बस नहीं लिख पाया वही/जिसे लिखने के लिए रोज की तरह/सोच कर बैठा था। एक
कवि के विकास के लिए जरूरी है कि ऐसा अहसास उसके भीतर बना रहना चाहिए। विमलेश सूरज
के उगने और रोशनी के फैलने की बात तो करते हैं लेकिन उनकी कविताओं में उन ताकतों
का कहीं कोई संकेत नहीं मिलता है जो इस रोशनी के वाहक होंगे। आशा करनी चाहिए कि
आने वाले समय में उनकी कविताओं में हमें ये शक्तियाँ दिखाई देेंगी। अभी इस संग्रह
का स्वागत करते हुए इतान ही कह सकते हैं- कि तुम्हारे हिस्से की हवा में/एक निर्मल
नदी बहने वाली है/तुम्हारे हृदय के मरूथल में/इतिहास बोया जाना है/और धमनियों में
शेष/तुम्हारे लहू से/सदी की सबसे बड़ी कविता लिखी जानी है।
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हम बचे रहेंगे( कविता संग्रह) विमलेश
त्रिपाठी
प्रकाशकः नयी किताब एफ-3/78-79 सेक्टर -16 रोहणी दिल्ली-110089 मूल्य-दो सौ रुपए।
संपर्क: जोशी भवन निकट लीड बैंक
पिथौरागढ़ 262501 मो0 9411707470
Saturday, August 18, 2012
समीक्षा-समीक्षा
परिपक्व अन्तर्दृष्टि की कविताएं : 'हम बचे रहेंगे' पर एक पाठकीय प्रतिक्रिया
- शिवशंभु शर्मा
"हम बचे रहेंगे" कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी का प्रथम काव्य संकलन है। सबसे पहले मैं युवा कवि को अपनी ओर से
हार्दिक बधाई देना चाहूंगा । कविताओं के सच बोलते शब्दो के गांभीर्य को पढने के
बाद समीक्षा लिखने की स्वयं की अर्हता पर मुझे संकोच होता है फिर भी ,बतौर पाठक प्रतिक्रिया व्यक्त करना
मेरा सौभाग्य और कर्तव्य है। हिन्दी के सरल, सीधे और
सहज--आंचलिक ,आसान भोजपुरिया शब्दों के समावेश के बाबजूद इस संकलन को एक नजर में
सरसरी तौर पर पढना मेरे जैसे एक पाठक के लिए संभव नहीं है, कई पंक्तियों पर नजरें ठहर जाती हैं। शब्दो
के प्रतीक-बिम्बों से निकलते भाव,
सच के सौंदर्य को महसूस करने के लिये
विवश कर देते हैं। कई जगहों पर पर मैं इतना मंत्रमुग्ध हो जाता हूं कि वहाँ ठहरकर
मैं शब्दों के भाव -सौंदर्य को देखता रह जाता हूं। ऎसा लगता है, कोइ विवश निर्दोष प्रेममय प्रतिभा घोर
उपेक्षा, पीडा, संत्रास, संघर्ष झेले या जीवन के उतार-चढाव की कडी धूप में
जले बगैर -- मात्र कोरी कलात्मक
कल्पनाओं, तर्क व अनुमान से इस प्रकार के सच को इतना स्पष्ट और बेबाक तरीके
से नहीं लिख सकता है। शब्द इतने तपे-तपाये हैं, जो कवि के उदगार के यथार्थ को एक सही
वजन देते दिखते हैं। हिन्दी के शब्दो के साथ ठॆठ भोजपुरिया शब्दो का मेल संकलन को
एक पक्का रंग देकर अनूठा बना देता है। सीधी, सरल और सपाट शैली मे लिखी पंक्तियों
में एक अदभुत धार है, जो आज के एक पाठक के मन की भटकी नैराश्य मनोवृतियों को काटती हुई और
उसपर ,अपने पैर जमाती हुई चलती चली जाती है, जो नये सिरे से सोचने का एक साकार
दृष्टिकोण देती है, नये आत्मविश्वास
गढती है। इस दिशा मे यह संकलन एक सफ़ल और प्रभावी प्रयास है।
शिवशंभु शर्मा |
हिन्दी कविता कई काल और वाद के दौर से गुजरती हुई मुक्तछंद के आज जिस मुकाम पर है, २१वीं सदी मे तेजी से बदलती
परिस्थितियों मे जो बदलाव आये हैं उनमें साहित्य का बदलना भी लाजिमी है। जैसा कि
हम जानते हैं, कविताओ का अपने तत्कालीन युग से एक
गहरा संबंध होता है, अब इतना कुछ अधिक लिखा पढा जा रहा है जो एक तरह से हिन्दी के प्रति गहरे प्रेम को दर्शाता है, यह एक अच्छी बात है, पर इसी प्रक्रम मे
कहीं-कहीं रोष, विखराव व भटकाव भी है। ऐसे माहौल में यह संकलन साहित्य में एक
आदर्श आयाम बनने में सहायक हो सकता है ।
.कंमप्युटर पर पहली बार मैने दो पंक्तियाँ पढीं -
जितने कम समय मे लिखता हू मै एक
शब्द
उससे कम समय मे मेरा
बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय मे
बहन " औरत से धर्मशाला " मे
तब्दील हो जाती है ।
...तभी से सोचता था कि वह कौन कवि है, जो इतनी पैनी और
अलग सोच रख सकता है। पहली बार मै ठहर गया था ,.. ,खोजते , ढूँढते ,विमलेश त्रिपाठी जी को पाया व
आज उनका यह काव्य संकलन देखने का मौका भी उन्ही के प्रयासों से मिला । मेरा अनुमान
सही निकला --यह काव्य संकलन सच मे एक अलग-से
रंग मे है । इसमें एक अलग बात है ।
कविताओं में कई ऎसी पंक्तिया हैं जो
अत्यंत मर्मस्पर्शी, भावुकता पूर्ण सच देखती हुईं अकूत प्रेम को दर्शाती है, जहाँ मेरे जैसे पाठक को देखने के लिये ठहरना पडता है ---
बूढे इन्तजार नही करते .....
अपनी हडिययों मे बचे रह गये अनुभव के
सफ़ेद कैलसियम से
खीच देते है एक सफ़ेद और खतरनाक लकीर
--
और एक हिदायत,
जो कोइ भी पार करेगा उसे बेरहमी से कत्ल
कर दिया जायेगा ....।
यहाँ कैलसियम और लकीर पर मै ठहर जाता
हूँ।
कितना वजन आज भी इस लकीर मे है, मैं ठहर कर महसूस करता हूँ, रीति-रिवाजों और परंपराओ की ओट मे सदियों से रहते आए आदमी के लकीर
के फ़कीर बनने पर, वहाँ अपने विवेक, साहस, और निर्णय लेने की न्याय- पूर्ण क्षमता से कवि मनुष्यता के सच को
वरीयता देता है।
कवि राजघाट पर राष्ट्रपिता से आज के
वर्तमान निर्मम स्थिति से जुडे कुछ प्रश्न करता है, यहाँ एक भोजपुरी
शब्द का प्रयोग है --"-ढठियाये-"- अर्थ है - बहला, फ़ुसलाकर या, फ़रेब से अथवा सुसुप्तावस्था में हत्या करना। इसके व्यापक अर्थ को
जानकर मन सिहर उठता है, अदभुत है यह शब्द । जो आज की स्थिति के चित्रण भाव को उपयुक्त
अर्थवत्ता देता है ।
---हत्यारे पहुँच रहे है,
सडक से संसद तक....
इन पंक्तियों से चलते -चलते मुझे कवि
धूमिल की यादें भी कुछ ताजा हो गयीं।
कवि की संवेदना देखते ही बनती है, वह अपनी माँ के गँवई चेहरे पर की
झुर्रिया देखता है ,उससे महुए को टपकता देख कर सफ़ेद कागज पर अंकित करने का बिम्ब
अत्यंत मर्मस्पर्शी है। कविता में देश काल और राष्ट्रचेतना मे शब्दों, बिम्बो का गठन बहुत
सुन्दर है, जहाँ मै ठहर सा जाता हूँ ।
कवि की दृष्टि एक दिहाडी मजदूर पर भी
है जब वह रंगो के दर्द भुलाने के लिये मटर के चिखने के साथ पीता है बसन्त के कुछ
घूँट । यहाँ भी मेरा ठहरना होता है ।
कविता के प्रति कवि का सच भी अदभुत सच
है ।
---मैने लिखा--कविता
और मैने देखा
कि शब्द मेरी चापलुसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे हैं ..... ।
जहाँ कही भी मैं कविता मे देखता हूँ - कवि तपे तपाए हुए शब्दो में कहीं भी किसी तरह का अभिनय, चाटुकारिता, दिखावा, अनर्गल प्रलाप या व्यर्थ के अर्थ खोजता हुआ नही लगता, बल्कि, वह सीधे और सपाट शब्दो से केवल वह सच
देखता है, जो एक राष्ट्र के परिपक्व जिम्मेदार जन-साहित्य चेतना
के प्रहरी कवि को देखना चाहिये । कविताओं मे केवल प्रेम और सच झलकता है,जो मन को छू जाता है जो पाठक को राहत
दे जाता है ।
....एक ऎसे समय मे जब शब्दो को सजाकर
नीलाम किया जा रहा है रंगीन गलियो मे
और कि नंगे हो रहे है शब्द
कि हाँफ़ रहे है शब्द
एक एसे समय मे शब्दो को बचाने की लड
रहा हूँ लडाई..... ।
देश, काल, साहित्य, समाज के सच को कवि एक खतरनाक और निर्मम समय के रूप मे व्यक्त करता है। इस बुरे समय मे भी विचलित-उद्वेलित
या रोष में नही लगता - वह तटस्थ भाव से गहरे पानी की तरह शांत होकर एक राह बनाता
है।
कवि के आत्मविश्वास से भरे उठे
हाथ हमें बचे रहने के भविष्य का आगाह करते हैं ।
कवि को यकीन है -----
एक उठे हुए हाथ का सपना ,
मरा नही है ,
जिन्दा है आदमी ,
अब भी थोडा सा चिडियों के मन मे ,
बस ये दो कारण काफ़ी है
परिवर्तन की कविता के लिये ..।
---पुन: कुछ और भी मिला मुझे ,...
....कोइ भी समय इतना गर्म नही होता
कि करोडों मुठ्ठियों को एक साथ पिघला
सके
न कोइ भयावह आंधी,
जिसमे बह जायें सभी..
मैंने एक जगह और देखा ,...
---शब्दों से मसले हल करने वाले बहरूपिये समय में
.........प्यार करते हुए
..............पालतू खरगोश के नरम रोओं से
या आइने से भी नहीं कहूँगा
कि कर रहा हूँ मैं सभ्यता का सबसे
पवित्र और खतरनाक
कर्म----
काव्य संकलन मे अर्थ इतना साफ़ है जो
हमे सोचने को बाध्य कर देता है कि कवि का अभिप्राय क्या है। एक जगह और कुछ
पंक्तियाँ मिलीं ।
जहाँ सब कुछ खत्म होता है ,
सब कुछ वही से शुरु होता है
....
कि तुम्हारे हिस्से की हवा मे
एक निर्मल नदी बहने वाली है
...
तुम्हारे लहु से
सदी की सबसे बडी कविता लिखी जानी है ।
............
मै समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ ।
.................
...किसानो की आत्महत्या के बाद भी
... दंगो के बाद भी
बाकी बचे रहेगें ,
रिश्तो के सफ़ेद खरगोश ...
.........
जब उम्मीदे तक हमारी बाजार मे गिरवी
पडी हैं
कितना आश्चर्य है
ऎसा लगता है पूरब से
एक सूरज उगेगा.. ।
............
यह शर्म की बात है ,
कि मै लिखता हूँ ,कविताएँ ,
यह गर्व की बात है,
कि ऎसे खतरनाक समय मे मै ,
कवि हूँ....कवि हूँ..।
---.. उपरोक्त पंक्तियाँ, काव्य संकलन की कविताओ की मात्र कुछ
अंश हैं -- इनसे पूरी कविता का भाव बगैर पूरी कविता पढे स्पष्ट नही होगा। यह
मात्र एक बानगी या खाका खीचने भर का प्रयत्न है, पूरे संकलन की कविताओ को , प्रतिक्रिया के इस छोटे दायरे में
लाना संभव नही जान पडता है।
****************
मै एक पाठक हूँ, मेरे भी कुछ निजी विचार हैं जिन्हें व्यक्त
करने के लिये स्वतंत्र हूँ। "हम बचे रहेगें "-- काव्य संकलन की कविताएँ
पढने के बाद मुझे लगा कि यह एक बहुत अच्छा सम्मानित और संग्रह योग्य काव्य-साहित्य है, ऎसे संग्रह का सम्मान के साथ मैं स्वागत करता हूं। जब पिसता है
आदमी,..और पीसने वाला भी है आदमी,.. तो ऎसे क्रूर और बुरे समय में एक
अच्छा साहित्य ही हमें राह दिखाता है। अगर यह विधा कविता हो तो बात और भी
दमदार हो जाती है । यह संकलन एक पिसते आदमी को राहत देता है। मेरा मतलब बिखरने और भटकने से बचाता है, प्यार सिखलाता है। और यह केवल हमें वर्तमान में ही नही राह
दिखाता,.. बल्कि अच्छे साहित्यिक गुणो से हमारी आने वाली पीढियों की फसलों के
दाने को भी पुष्ट ,परिपक्व बनाने के इतिहास मे एक उर्वरक का काम भी करता है । कभी-
कभी हम यह भूल जाते हैं --यह भूल इस काव्य संकलन मे नही है ।
कवि के पास मानव जीवन के अनेक सरल और
संगीन सामाजिक-राजनैतिक और वसुधा के प्रेम से भरी हुई सत्य के विहंगम दृश्य को
देखने की एक परिपक्व अन्तर्द्ष्टि है, जो विशिष्ट है.. और यह वैशिष्टय प्राय: सभी कविताओ मे दिखता है, जो हमे सत्य के सौन्दर्य से सराबोर कर मन को झकझोर देती है, जो हमारे नैराश्य से सुप्त पडे
मनुष्यता के प्रेम को जगाकर एक आत्मविश्वास की प्रेरणा देने की दिशा देती है।
संकलन मे कविताएं .., गाँव , गँवई ,जवार ,बूढे गवाह बरगद, फुरगुदी, खेत, पगडंडी, खलिहान, छान्ही पर की चिडियाँ अनगराहित भाई, सूकर जादो,
सफ़ेद खरगोश, होरी और चईता के स्वर के धुनों सहित कई पात्र व माध्यम के सजीव रंगो से वह प्रेम जगाते हैं जो आज के समय की जरूरत है । जब तक साहित्य मे सच का सौन्दर्य जीवित
रहेगा, शब्दो मे प्रेम, कविता में चेतना का आत्मविश्वास ,सौहार्द और सहिष्णुता की सही दिशा रहेगी ,...,, रिश्तो के खरगोश बचें हैं ,हम बचे है,..और रहेंगे हम,...यानी,..."हम बचे रहेंगे ",.....।
इस बात पर मुझे इकबाल साहब की, अपने देश की ही अपनी रागिनी की गुँज आ रही है ।
...कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,,, युनान ,मिस्र रोंम्या सब मिट गये जहाँ से,... , सारे जहाँ से.........।
अगर कोइ मुझसे पूछे कि इसमे क्या बात
है ?..तो मै कहूंगा ,
इसमे यही बात है ।
विमलेश जी आपने मुझे इतना छुआ है कि
क्या बताउं ? बहुत दिनो के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला ।
अंत मे एक संदेश है मेरा जो आपकी कविता का ही एक अंश है ।
मुझे.. दूसरे संकलन का इंतजार रहेगा ....
ठीक वैसे ही ---
मन्दिर की घंटियो के आवाज के साथ
रात के चौथे पहर,
जैसे पंछियो की नींद को चेतना आती है
।
..........
जैसे लंबे इंतजार के बाद सुरक्षित घर
पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिये प्लेटफ़ार्म पर
पैसेंजर आती है ।
पुन: सधन्यवाद ,...आभार ..सहित...।
n शिवशंभु शर्मा
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